राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना

राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना (NRLP) क्या है?

  • देश की कुछ नदियों में आवश्यकता से अधिक जल रहता है तथा अधिकांश नदियाँ ऐसी हैं जो वर्षा ऋतु को छोड़कर वर्षभर सूखी ही रहती हैं या उनमें जल की मात्रा बहुत ही कम रहती है.
  • ब्रह्मपुत्र जैसी अन्य नदियों में जल अधिक रहता है, उनसे बाढ़ आने का ख़तरा बना रहता है.
  • राष्ट्रीय नदी-जोड़ो परियोजना (NRLP) ‘जल अधिशेष’ वाली नदी घाटी (जो बाढ़-प्रवण होता है) से जल की ‘कमी’ वाली नदी घाटी (जहाँ जल की कमी या सूखे की स्थिति रहती है) में अंतर-घाटी जल अंतरण परियोजनाओं के जरिये जल के हस्तांतरण की परिकल्पना करती है. इसे औपचारिक रूप से हम राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना (NPP) के रूप में जानते हैं.
  • यहाँ “जल अधिशेष” से हमारा तात्पर्य नदी में उपलब्ध उस अतिरिक्त जल से है जो सिंचाई, घरेलू खपत और उद्योगों की आवश्यकताओं की पूर्ति के पश्चात् शेष बच जाता है, परन्तु इस दृष्टिकोण में नदियों के स्वयं की जल की जरूरतों की अनदेखी कर दी जाती है.
  • जल की अल्पता को भी मात्र मानव आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में देखा गया है, न कि नदी की खुद की जरूरतों के परिप्रेक्ष्य में जिनमें कई अन्य कारक भी सम्मिलित होते हैं.

    नदियों के इंटरलिंकिंग के समक्ष चुनौतियाँ

    • नदियों के इंटरलिंकिंग में बहुत सारे पैसे खर्च हो जाते हैं.
    • यह भूमि, वन, जैव विविधता, नदियों और लाखों जनों की आजीविका पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है.
    • नदियों के परस्पर संपर्क से जंगलों, आर्द्रभूमि और स्थानीय जल निकायों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.
    • यह लोगों के विस्थापन का कारण बनता है. कालांतर में विस्थापितों के पुनर्वास के मुद्दे से निपटने के लिए सरकार पर भारी बोझ पड़ता है.
    • नदियों को आपस में जोड़ने के कारण समुद्रों में प्रवेश करने वाले ताजे जल की मात्रा में कमी हो जाती है और इससे समुद्री जीवन को गंभीर खतरा होगा.

      बाढ़ और सूखे की समस्या

      भारत में अभी अनेक राज्य ऐसे हैं, जहाँ अधिक वर्ष के चलते बाढ़ आ जाती है तो कुछ इलाके ऐसे हैं जहाँ सूखा स्थायी रूप से विद्यमान होता है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या नदी जोड़ो परियोजना इन समस्याओं को दूर करने में कारगर है?

      बाँधों के पक्षकार बाढ़ वाली नदियों को एक अवसर के रूप में देखते हैं. यह अवसर उन्हें ज्यादा बांध बनाने के रूप में दिखता है, जबकि वास्तविकता इससे बिल्कुल विपरीत है. बाढ़ वाली नदियाँ हमें बताती हैं कि हमें वर्षा के जल के भंडारण की आवश्यकता है. लेकिन यह भंडारण बांध बनाए जाने के रूप में नहीं होना चाहिए. सूखा पड़ने के ठीक बाद बाढ़ वाली नदियाँ हमें भविष्य में सूखे की दस्तक भी दे देती हैं. यदि हम उनके इस संकेत को समझ नहीं पाते तो हम अपने पाँव पर ही कुल्हाड़ी मारते हैं.

      निष्कर्ष

      एकीकृत तरीके से जल संसाधनों का विकास एवं इसके लिये लघु अवधि और दीर्घावधि के समस्त उपायों को अपनाया जाना चाहिए. सही ढंग से समयबद्ध रूप से लागू किया जाए तो एक नदी घाटी से दूसरे नदी घाटी क्षेत्र में पानी पहुँचाने वाली जल संसाधन परियोजनाएँ पानी की उपलब्धता के असंतुलन को खत्म करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं. इसके अतिरिक्त जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रतिकूल प्रभावों के शमन में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान हो सकता है.

       



      हिमालयी क्षेत्र की संयोजक नहरों के नाम

      1. सोन बांध-गंगा की दक्षिणी सहायक नदियां
      2. सुवर्णरेखा-महानदी
      3. शारदा-यमुना
      4. राजस्थान-साबरमती
      5. यमुना-राजस्थान
      6. ब्रह्मपुत्र-गंगा(जोगीगोपा-तीस्ता-फरक्का)
      7. ब्रह्मपुत्र-गंगा (मानस-संकोश-तीस्ता-गंगा)
      8. फरक्का-सुंदरवन
      9. फरक्का-दामोदर-सुवर्णरेखा
      10. चुनार-सोन बैराज
      11. घाघरा-यमुना
      12. गंडक-गंगा
      13. कोसी-मेकी
      14. कोसी-घाघरा

      प्रायद्वीपीय क्षेत्र की संयोजक नहरों के नाम

      1. कावेरी (कट्टई)- वईगई-गुंडुर
      2. कृष्णा (अलमाटी)-पेन्नार
      3. कृष्णा (नागार्जुन सागर)-पेन्नार (स्वर्णशिला)
      4. कृष्णा (श्रीसैलम)-पेन्नार (प्रोडात्तुर)
      5. केन-बेतवा लिंक
      6. गोदावरी (इंचमपाली लो डैम)-कृष्णा (नागार्जुन टेल पाँड)
      7. गोदावरी (इंचमपाली)-कृष्णा (नागार्जुन सागर)
      8. गोदावरी (पोलावरम)-कृष्णा (विजयवाड़ा)
      9. दमनगंगा-पिंजाल
      10. नेत्रावती-हेमावती
      11. पम्बा-अचनकोविल-वप्पार
      12. पार-तापी- नर्मदा
      13. पार्वती-काली सिंध-चंबल
      14. पेन्नार (स्वर्णशिला)-कावेरी (ग्रांड आर्नीकट)
      15. महानदी (मणिभद्रा)-गोदावरी (दौलाईस्वरम)
      16. वेदती-वरदा